Saturday, May 26, 2012

sardi ki ek sham

कितने
छोटे-छोटे
होने लगे है
दिन

पार्क की
उस कोने वाली
अपनी बेन्च
तक
पहुचते पहुचते
भीग चुकी होती है
वो
ओस से !

पोछता हू॑
थोडी सी जगह
अपने लिये
ऒर थोडी सी
तुम्हारे लिये भी
रूमाल से !

सच
कितने
छोटे-छोटे होने लगे है
दिन....

वो
पत्थर की मूर्ति पर
रोज
अकेले
बैठी मिलती थी
गॊरैया
किसी के
इन्तजार मे
ठीक मेरी तरह
शायद
उसने भी ढूढ लिया है
कोई घोसला
तोडते हुए
मुझसे
एक
अनजान रिश्ता !

कुछ रिश्ते
मॊसम से ही
बन्धे होते है
जो
बदल लेते है
करवट
मोसम के साथ ही !

दूर
लेम्प पोस्ट की
रोशनी को
ढके ले रहा है
कोहरा
जैसे
ढ्कता जा रहा हो
समय
किसी जगमगाती
किसी आस
किसी
उम्मीद को !

लेता हू
गहरी सा॑स
छोडता हू॑
हवा मे
ऒर
देखता रहता हू॑
भाप जैसा कुछ
हवा मे
विलीन होते हुए
जैसे
भूत की गर्त मे
बीते हुए दिन...

हा॑
एसी ही कुछ थी
आज की तरह ही
वो
तुम्हारे साथ की
आखिरी
सर्द शाम...
जब हम
बैठे थे
इसी बेन्च पर इसी
जगह
अपनी अपनी
गोद मे लिये
भविष्य की
हजारो हजार
चिन्ताये...
ऒर
होठो पर
बर्फ़ से भी ठन्डे मॊन
सिर्फ़
उड रहे थे
अनुउत्तरित प्रश्न
हवा मे
भाप बन कर....!

मैने ही
कहा था
उठो
सर्दी बढ रही है
ऒर
तुमने
शाल भी नही ली है
उठते उठते
तुम्हारी आखो ने
पूछा था...
तुमने भी
मफ़लर
कहा॑ लिया है !

सच
छोटे-छोटे दिनो
की शामे कितनी
सर्द होने लगी है
पता नही
तुम
अब भी हो उतनी ही
लापरवाह
पता नही
तुमने
शाल लेना
शुरू किया है
कि नही !!!

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